TIRUKKURAL IN HINDI

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prasanna
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TIRUKKURAL IN HINDI

Post by prasanna » Mon Aug 25, 2008 1:49 pm

अध्याय  92.   वार-वनिता


911


चाह नहीं है प्रेमवश, धनमूलक है चाह ।

ऐसी स्त्री का मधुर वच, ले लेता है आह ॥

912


मधुर वचन है बोलती, तोल लाभ का भाग ।

वेश्या के व्यवहार को, सोच समागम त्याग ॥

913


पण-स्त्री आलिंगन रहा, यों झूठा ही जान ।

ज्यों लिपटे तम-कोष्ठ में, मुरदे से अनजान ॥


914


रहता है परमार्थ में, जिनका मनोनियोग ।

अर्थ-अर्थिनी तुच्छ सुख, करते नहिं वे भोग ॥

915


सहज बुद्धि के साथ है, जिनका विशिष्ट ज्ञान ।

पण्य-स्त्री का तुच्छ सुख, भोगेंगे नहिं जान ॥


916


रूप-दृप्त हो तुच्छ सुख, जो देती हैं बेच ।

निज यश-पालक श्रेष्ठ जन, गले लगें नहिं, हेच ॥


917


करती है संभोग जो, लगा अन्य में चित्त ।

उससे गले लगे वही, जिसका चंचल चित्त ॥

918


जो स्त्री है मायाविनी, उसका भोग विलास ।
अविवेकी जन के लिये, रहा मोहिनी-पाश ॥

        919


वेश्या का कंधा मृदुल, भूषित है जो खूब ।

मूढ-नीच उस नरक में, रहते हैं कर डूब ॥

        920


द्वैध-मना व्यभिचारिणी, मद्य, जुए का खेल ।

लक्ष्मी से जो त्यक्त हैं, उनका इनसे मेल ॥



अध्याय 93. मद्य-निषेध

921


जो मधु पर आसक्त हैं, खोते हैं सम्मान ।

शत्रु कभी डरते नहीं, उनसे कुछ भय मान ॥

922


मद्य न पीना, यदि पिये, वही पिये सोत्साह ।

साधु जनों के मान की, जिसे नहीं परवाह ॥


923


माँ के सम्मुख भी रही, मद-मत्तता खराब ।

तो फिर सम्मुख साधु के, कितनी बुरी शराब ॥

924


जग-निंदित अति दोषयुत, जो हैं शराबखोर ।

उनसे लज्जा-सुन्दरी, मूँह लेती है मोड़ ॥

925


विस्मृति अपनी देह की, क्रय करना दे दाम ।

यों जाने बिन कर्म-फल, कर देना है काम ॥

926


सोते जन तो मृतक से, होते हैं नहिं भिन्न ।

विष पीते जन से सदा, मद्यप रहे अभिन्न ॥


927


जो लुक-छिप मधु पान कर, खोते होश-हवास ।

भेद जान पुर-जन सदा, करते हैं परिहास ॥

928


‘मधु पीना जाना नहीं’, तज देना यह घोष ।

पीने पर झट हो प्रकट, मन में गोपित दोष ॥

        929


मद्यप का उपदेश से, होना होश-हवास ।

दीपक ले जल-मग्न की, करना यथा तलाश ॥


       930


बिना पिये रहते समय, मद-मस्त को निहार ।

सुस्ती का, पीते स्वयं, करता क्यों न विचार ॥



अध्याय 94. जुआ


931


चाह जुए की हो नहीं, यद्यपि जय स्वाधीन ।

जय भी तो कांटा सदृश, जिसे निगलता मीन ॥

932


लाभ, जुआरी, एक कर, फिर सौ को खो जाय ।

वह भी क्या सुख प्राप्ति का, जीवन-पथ पा जाय ॥

933


पासा फेंक सदा रहा, करते धन की आस ।

उसका धन औ’ आय सब, चलें शत्रु के पास ॥

934


करता यश का नाश है, दे कर सब दुख-जाल ।

और न कोई द्यूत सम, बनायगा कंगाल ॥

935


पासा, जुआ-घर तथा, हस्य-कुशलता मान ।

जुए को हठ से पकड़, निर्धन हुए निदान ॥

936


जुआरूप ज्येष्ठा जिन्हें, मूँह में लेती ड़ाल ।

उन्हें न मिलता पेट भर, भोगें दुख कराल ॥

937


द्यूत-भुमि में काल सब, जो करना है वास ।

करता पैतृक धन तथा, श्रेष्ठ गुणों का नाश ॥

938


पेरित मिथ्या-कर्म में, करके धन को नष्ट ।

दया-धर्म का नाश कर, जुआ दिलाता कष्ट ॥

        939


रोटी कपड़ा संपदा, विद्या औ’ सम्मान ।

पाँचों नहिं उनके यहाँ, जिन्हें जुए की बान ॥

        940


खोते खोते धन सभी, यथा जुएँ में मोह ।

सहते सहते दुःख भी, है जीने में मोह ॥

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